सुबह कब हो गयी पता ही न चला। एक अलसाई सुबह कोहरे के आगोश में कड़ाके की ठंड के साथ इंतज़ार कर रही थी मेरा। रेनू उठ कर अपने कार्यों में व्यस्त हो चुकी थी, हमेशा की तरह। मैं यूं ही चल पड़ा ताल की ओर। बहुत छोटेपन से मुझे पानी के केनारे बेहद पसंद हैं। ताल के किनारे चहलकदमी करते हुए यूं ही दूर तक चला जाना अच्छा लग रहा था। सुबह की सर्द और नम हवाएँ अंतर्मन को भीगो रही थीं। चंद अनजाने चेहरे, मुझे पहचानने की कोशिश करते आते-जाते दिख जाते। ताल के चारों ओर घूम लेने के बाद मुझे एहसास हुआ कि घर पर सब इंतज़ार कर रहे होंगे। काफी समय बीत चुका था और सूरज भी उदय हो चुका था। वहीं रोड के किनारे कुछ दुकाने भी खुल गयी थीं.. कुछ बुजुर्ग एक मेज़ के किनारे बैठे थे। मैंने अभी उन्हें पार किया ही था के एक आवाज़ आयी "तुम्हारी चाल"... मुझे लगा शायद किसी ने मुझसे कुछ कहा. पीछे मुड़ के देखा तो वह शतरंज खेल रहे थे।
मेरे कदम ख़ुद बा ख़ुद उस और मुड़ गए जहाँ शतरंज की बिसात बिछी थी। कुछ बुजुर्ग चेहरे चारों ओर जमा थे. ....