Tuesday, July 5, 2011

ज़द्दोजहद

शाखों के पत्ते आपस में कुछ चुहल करते हुए हँस पड़ते हैं. उनकी अटखेलियाँ मन को आल्हादित कर देती हैं. सिर्फ चन्द पल के लिए, और फिर सहसा मन उदास हो विचारों के सागर में गोते खाने लगता है. सब कुछ तो करना चाहा था मैंने उसके लिए, फिर क्यों उसने इतना बड़ा फैसला अकेले कर लिया बिना मुझसे सलाह लिए. यूँ तो हर छोटी से छोटी बात वो बिना मुझसे पूछे न करती थी. इस साड़ी के साथ कौन सी लिपस्टिक अच्छी लगेगी? यह चूड़ियों का सेट पहनू, या वो हरा वाला? अनगिनत सवाल और अनकहे जवाब. फिर ऐसा क्या हो गया कि आज उसने बात करना तक ठीक न समझा और फैसला ले लिया!

कहते हैं कि प्यार का अंत शादी पे होता है. हमारा तो प्यार शुरू ही शादी के बाद हुआ. चंद घंटो की मुलाकात और घर वालों द्वारा शादी का फैसला. दिन मानो पंख लगा कर उड़ने लगे. जीवन ने जैसे अनगिनत रंग घोल दिए हमारे लिए, उनका रसास्वादन करने के लिए. जब गोवा के बीच पर उसने पहली बार समुद्र को देखा तो वो भाव विहोर हो गयी थी. उसने हाथ पकड़ के कहा था कि कभी मुझसे कोई गलती हो जाये तो मुझे माफ़ कर देना. मैंने उससे कहा था कि यह जो समुद्र है, यह बहुत गहरा है, यह अपने अन्दर सब कुछ समा लेता है. अगर यह रत्नाकर है तो यह हलाहल विष धारक भी है. हमारा प्यार उस समुद्र की तरह होगा जिसकी गहराई कि कोई सीमा न होगी. हर गुजरता हुआ पल हमारे प्यार को और प्रगाड़ बनाता जा रहा था. मैं अपने आपको बहुत खुशकिस्मत मानता कि मुझे ऐसा हमसफ़र मिला.

कुछ वक़्त बीता तो वापस दुनियावी जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी कामों का सिलसिला भी शुरू हो गया. अलसाई सुबह में उठते ही वक़्त पे ऑफिस पहुचने की आपाधापी, और उसी आपाधापी के बीच उसका खाना बनाना, प्यार से पूछना के रुमाल या मोबाइल रखा के नहीं? प्यार भरी छेड़-छाड़. उफ़, प्यार में डूबा शख्स कितनी बचकानी हरकतें करता है, अब सोचता हूँ तो हंसी आती है. ऑफिस में व्यस्तता बढती जा रही थी. बढती हुई जिम्मेदारियों के साथ वक़्त भी अधिक देना पड़ता. उसने कई बार शिकायत भी की के अब आप मुझे वक़्त नहीं देते. मैंने भी हर बार उसे ये कह के मन लिया कि बस कुछ दिन और, अभी काम ज्यादा है और जल्द ही हम लोग एक मुकाम पे होंगे और फिर हम ढेर सारा वक़्त साथ में बिताएंगे. इसी आस, मान-मनुव्वल में वक़्त गुजरता गया. जैसे हर राह कि एक मंजिल होती है. जैसे हर उड़ान का एक ठहराव होता है, हमारे प्यार में भी कुछ ऐसा नज़र आने लगा था. हम दोनों ही इसे समझ कर भी दरकिनार करने लगे थे. सुबह कि अठखेलियाँ कम होती जा रही थीं. या यूँ कहे कि हम mature (?) होने लगे थे.

हर सोमवार को ऑफिस में मीटिंग होती जिसमे कंपनी के Director लेवल के लोग भाग लेते. हर सप्ताह का टार्गेट, उसे पूरा करने के लिए दिन-रात की मेहनत, सभी कर्मचारियों कि आदत बनने लगी थी. ऑफिस का काम घर पे भी आने लगा था. उसने भी जैसे इसे जीवन का हिस्सा मान कर आत्मसात कर लिया था. शुरूआती विरोध अब धीरे धीरे थम चुका था. वो कहती तो कुछ न थी पर उदासी उसकी आँखों में दिखाई पड़ने लगी थी. यकीनी तौर पे मुझे भी यह बात खलने लगी थी. पर जीवन का सफ़र तो बस मरीचिका के पीछे भागना ही है. जाने किस अनजानी मंजिल को पाने की जद्दोजहद मुझे अतिव्यस्त बनाती जा रही थी. वक़्त मानो ठहर सा गया था हमारी जिंदगी में.

और उधर, कब दिन सप्ताह बने, सप्ताह महीने, और महीने साल, कुछ पता न चला. हर मीटिंग में हम कहते के हम तरक्की कर रहे हैं. और हर तरक्की हमें एक नयी शुरुआत की प्रेरणा देती. किसी कंपनी में शुरू से जुड़े होने का एक अलग ही मतलब होता है. जैसे जैसे कंपनी तरक्की करती है, और नए लोग जुड़ते हैं, आपका उससे जुडाव और जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है. कंपनी अब सिर्फ दुसरे की कंपनी नहीं थी मेरे लिए. मुझे हर वक़्त इसे आगे बढाने का ख़याल सवार रहता. नए लोगों को आगे बढ़ाना और उनको एक नए मुकाम पे पहुचाना अब मेरी जिम्मेदारी भी थी और मेरा शौक भी. नए professionals के चेहरे में खुशी देखता तो मन प्रफुल्लित हो जाता. कभी रुक कर सोचता तो लगता कि मैंने जिस राह को चुना उसे चुनने में जरूर इश्वर का भी हाथ रहा होगा, वर्ना कितने लोग हैं जिसे हर वो चीज मिलती है, जिसकी वो तमन्ना रखते हैं. हम लगातार बाधाओं को पार कर नए मुकाम पर पहुँच रहे थे. ऑफिस में कर्मचारियों कि संख्या बढ़ती जा रही थी जो कि हमारी तरक्की की निशानी थी. पूर कंपनी को चलाने के लिए कई नए मेनेजर भी हो गए थे. सोमवार के अलावा हफ्ते में कई मीटिंग होने लगी थी. तनाव जरूर कुछ बढ़ा था लेकिन कंपनी का भी लगातार विस्तार चल रहा था.

इस साल के तीसरे तिमाही का लक्ष्य पूरा करने के लिए, हमने पूरा जोर लगा रखा था. कुछ नयी कंपनियों के हमसे जुड़ जाने से, हमारा काम कुछ बढ़ भी गया था. इस तिमाही का आखिरी महीना होने के कारण pressure बहुत ज्यादा था. पिछले दो हफ़्तों से मैं और मेरे कुछ team members दिन रात एक किये हुए लक्ष्य पाने कि चेष्टा में लगे हुए थे. कई दिन हम ऑफिस में ही सो जाते, सुबह जल्दी उठ कर काम में जुट जाते. कभी कभी लगने लगता के इस तिमाही हम न पहुच पाएंगे जहाँ हम जाना चाहते हैं. फिर एक दूसरे को motivate करते और नए जोश के साथ जुट जाते काम में. आख़िरी दो दिनों में हमने शायद ही १-२ घंटे की नींद ली हो. पर अंततः हमने लक्ष्य पूरा किया.

आज नए तिमाही का पहला दिन था और सोमवार भी. मीटिंग में Directors ने हम सब को बधाई दी और surprisingly मीटिंग के बाद छुट्टी कि घोषणा कर दी. हाड़ तोड़ मेहनत के बाद ये ऐसा मंज़र था जैसा तपती धूप में सावन कि घटाएं अपनी नन्ही बूंदों से समस्त भूमंडल को भिगो देना चाहती हों. मैं भी उस नम बारिश के एहसास के साथ घर कि तरफ रवाना हुआ. ४ दिन बाद मैं घर जा रहा था. आज कई दिन बाद में उस के साथ पूरा दिन बिताऊंगा और उसकी सारी शिकायतें दूर कर दूंगा.

घर पहुंचा तो वो नजर न आयी. आवाज दी तो कोई जवाब न मिला. कमरे में पहुंचा तो सिराहने रक्खा एक कागज़ का टुकड़ा हवा से लड़ने की नाकाम सी कोशिश कर रहा था. बरबस नजर उस पर पडी. उठा के देखा तो समझते देर न लगी की यह उसी का लिखा पत्र है. जैसे जैसे पत्र पढता जाता, मेरी नब्ज़ डूबती हुई महसूस होती. पत्र समाप्त होते होते मैं पसीने से नहा चुका था. वो घर छोड़ कर अपने मायके चली गयी थी. उसने लिखा था कि शायद मैं तुम्हारी तरक्की में बाधा बन रही हूँ. मैं तुम्हारे सपनो को पूरा होते देखना चाहती हूँ. लेकिन मैं पास हो कर भी तुम्हें अपने से दूर पाती हूँ. यह एहसास के मेरी अब तुम्हारी जिन्दगी में कोई अहमियत नहीं है, मुझे अन्दर ही अन्दर तुमसे दूर कर रहा है. में तुमसे दूर जा रही हूँ ताकि हमारी नजदीकियां कायम रहें. कम से कम उन हसीन पलों को जो हमने साथ बिताएं हैं, मैं संजो के रखना चाहती हूँ अपनी आँखों में. डरती हूँ कि कही आसुओं की अविरल धार में बह न जायं वो पल. मेरा प्यार तुम्हारे लिए अक्षुण बना रहेगा. जब तुम अपना मुकाम पा लो और मेरी जरूरत महसूस करो, तो मेरे पास आना. मैं तुम्हारा हर वक़्त इन्तेजार करूंगी.

उसे खो देने का एहसास, उसके न रहने से उपजा शून्य, सहसा मुझे तोड़ सा गया. अपनी लाचारी पे मुझे रोना आता पर आंसूं शायद सूख से गए हैं. हाथ पैरों में जैसे जान ही न हो. मैं चिल्लाना चाहता पर आवाज कंठ से न निकलती. मैं उसे बुलाने को हाथ बढ़ाना चाहता, पर हाथ उठाने से इनकार कर देते. दूर कहीं कानों में आवाज आती, "आज तो मीटिंग होगी". में उस आवाज से दूर भागना चाहता. आवाज और पास आती जाती. मैं अपने कानों में हाथ रख लेता. आवाज कि तीव्रता और बढ़ जाती. "आज मीटिंग है, जाना नहीं है" उसका मुस्कराता चेहरा सामने आता मुझे अपने एहसासों से झिंझोड़ता हुआ कहता - "देर हो जाएगी, आज सोमवार है, मीटिंग मैं नहीं जाना क्या?" में हडबडा के उठ पड़ता हूँ. वो पूछती है के क्या हुआ.

अभी अभी एक भयानक सपना देखा.

एक सुखद एहसास लिये के चलो ये एक सपना था, मैं मीटिंग के लिए तैयार होने चल पड़ता हूँ.

11 comments:

Ankit said...

Beautiful !!A truth of every "so-called" successful man's life. But jaise apne ise likha aur socha, wo shabdo se pare hai.

Anonymous said...

Sir,
isse padhte padhte, mai kahi kho sa gaya. or laga ki ye hm sab ki kahani hai jo apne career ko aage le jane k liye, apno se ddor hote jate hai. Sir, Hats Off to you. You are truly an inspiration......great work Sir.

shivani said...
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shivani said...

hey Madhup, good writing, I always look forward to something new in your blog.
Though my point of view is very different from what you said in the story. For me love is not only going to the beach holding hands, or always under pressure to spend time together. Love is when you support someone even when the other can not spend time with you, or knowing that the other is always supporting you wherever you are.
Anyway , this is not about the theme but about the language and the way you carried the story out. your language was amazing and it made us look forward to the end of the story. The way you began your story was also really nice. The element of surprise always there. Lovely writing. I think if you left computers you are going to be a very successful writer. Looking forward to your next post. Awesome job.

VIVEK DWIVEDI said...

विस्मयकारी अभिव्यक्ति! कोई कितना भी चाहे अपने आपको रोक के रखना पर वो कहानी को पढ़ते हुए कुर्सी के क्षितिज पे खिंचा ही चला जायेगा. विषयवस्तु पे बात करना हमेशा ही प्रसंगेत्तर होता है लेखक के लिए. क्यूंकि वो बहस का मुद्दा कम ही होना चाहिए लेखक के अनुसार. तो मैं प्रंसंग में बना रहना चाहता हूँ. सबकुछ तो है कहानी में. धाराप्रवाह वृतांत. छोटी छोटी मनमोहक भावनाएं . और उतनी ही अच्छी नज़र हर एक गूढ़ से गूढ़ बिन्दुओं पे पैनी निगाह कबीलेतारीफ़ है. लेखक का पारितोषिक सिर्फ प्रसंशा ही नहीं होता, वरन उसपे चर्चा भी है. लेखक की कलम में स्याही के स्थान पे भावनायों का द्रव है जो उसकी अभिव्यक्ति को नया जीवन प्रदान करता है. कहानी में जो सबसे ख़ास बात होती है वो होती है व्युत्क्रमण जिसका लेखक निर्वाह करने में पूर्णतः सफल रहा है. इसलिए लेखक को कोटि कोटि बधाई. और आभार ऐसी अच्छी कहानी पढ़ाने के लिए.

Abdullah Abul Kalam said...

अति सुंदर! दिन प्रतिदिन श्रेष्ठ लेखन की ओर अग्रसर हैं. पाठक की रूचि अंत तक बनी रहे, इस में सफल रहे हैं. Vivek Dwivedi ने विषयवस्तु तथा प्रसंग का प्रश्न उठाया है, मैं यह कहने के लिए बाध्य हूँ की वह न तो प्रसंगेतर है और न ही समालोचना से इतर. वास्तव में यदि लेखक जगबीती को आपबीती का रूप देकर अनुभव करा दे, तो कदाचित यही उसकी सफलता का द्योतक है. इस आलेख में Madhup जी ने स्वगत होते हुए भी, जीवन तथा जीवन संबंधो की वेदना व्यक्त की है. बदलते जीवनशैली और व्यक्तिगत जीवन पर होने वाले इसके प्रभाव का सूक्ष्म अवलोकन प्रस्तुत कर दिया है, जो सभी की आपबीती है. मधुप जी का शब्दविन्यास तथा शैली रोचक, सहज, व सबोधगम्य हैं.

nidhi... said...

nice story....natural one..

Unknown said...
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Unknown said...

Hey dear Madhup!

I like your writing. Really, in today's scenario, this is an exceptional piece of work. I like it. I am looking forward for new updates! Thanks.

Anonymous said...

Sir,

The story is awesome. I was lost when i read it. Ur way of writing is amazing. Please continue it...I am looking forward to your newer post.

Unknown said...

A bitter truth of today's lifestyle. The story is relatable to many working professionals.
It was so good that I got lost while reading. Read something new after a long time.