Tuesday, September 8, 2015

मंगल की ओर

चले भाई मंगल की ओर.…



Saturday, July 13, 2013

श्रद्धांजली

श्रद्धांजली प्राण साहब !


आज फिर चाँद रात भर रोता रहा,
फिर एक तारा टूट कर फ़ना हो गया,
रात कुछ और अंधेरी हो गयी,
वोह मुस्कुराते हुए उस जहाँ का हो गया।

Tuesday, December 20, 2011

मैं ...

हाँ मैं जानता हूँ उसे,
और इधर कुछ दिनों से खोज भी रहा हूँ.
पर वो मिल नहीं रहा,
जाने कहाँ खो गया है.
सोचता हूँ तो याद आता है,
अभी हाल में ही तो दिखा था,
वो फिर नज़र क्यों नहीं आता!
शायद मुझसे ही आँख मिचौली खेल रहा है,
सोचता होगा कि मुझे उलझा लेगा,
हरा देगा,
और हाँ, मैं उससे हारना भी चाहता हूँ,
देखना चाहता हूँ उसके चेहरे पर जीत कि चमक,
पर अभी मिल नहीं रहा,
यकीन है कि मिल ही जायेगा मुझको,
आज नहीं तो कल,
यहीं कहीं, आस पास.

Sunday, December 11, 2011

अन्ना मैं हूँ!

दिखला दो इस सत्ता को, हम खास नहीं हैं आम सही,
पर वक़्त उसी का होता है, जो बिकता है सरे-शाम नहीं,
इन बिकने वाले लोगों से, क्या उम्मीद लगाये बैठे हो,
सिखला दो इन गद्दारों को, जीने का अंदाज़ सही.

राख बन कर हम बैठे हैं, यह भस्म हमे नहीं चाहिए,
अन्ना तो अब निकल पड़ा, कुछ बात बदलनी चाहिए,
कब तक घरों में बैठोगे, और सोचोगे कुछ हुआ नहीं,
इन सुलगते शोलों से बस आग निकलनी चाहिए.

सच है अन्ना, कोई राज़ नहीं,
यह सरकार तुम्हारी घात में है,
अन्ना मैं हूँ, अन्ना तुम हो,
अन्ना हम सब साथ में है.
वो एक अन्ना को छेड़ेंगे तो बात बिगड़ ही जाएगी,
हम संग खड़े जो मिल करके सरकार पिघल ही जाएगी.

Saturday, December 3, 2011

यहीं कहीं तो थी

कहीं खो गयी है, यहीं कहीं तो थी,
सुबह से ढूंढ रहा हूँ पर मिल नहीं रही,
शायद घर के किसी कोने में हो,
या काम के सिलसिले में कहीं छूट तो नहीं गयी,
कब से ढूंढ रहा हूँ पर मिल नहीं रही.

याद पड़ता है, अभी कल ही तो आयी थी,
जब बच्चों के साथ खेल रहा था,
और हाँ, जब पत्नी से अठखेलियाँ कर रहा था,
वहीँ पर तो थी,
फिर कहाँ गुम हो गयी,
सुबह से ढूँढ रहा हूँ, जाने कहाँ खो गयी.

उदासियों के बादल गहरे होते जाते हैं,
जाने क्यों लगने लगा है कि,
शायद अब न मिल पायेगी,
फिर भी एक कोशिश और करता हूँ,
उम्मीदों का साथ न छोड़ता हूँ,
कहीं तो होगी, अभी यहीं कहीं तो थी.

सुबह से शाम होने को आयी,
वो न मिली,
काम के बीच भी उसे ढूँढता रहा,
वो न मिली जिसे न मिलना था,
बुझे मन से घर आता हूँ,
मेरी दोनों बच्चियां दौड़ कर लिपट जाती है,
दिखाती हैं एक कागज़ का पन्ना,
पापा, हमने आपके लिए कार्ड बनाया है,
Welcome Home लिखा है कार्ड पर,
मेरी आँखें नम हो जाती है,
हम तीनों के चेहरे पर आ जाती है हंसी,
यही तो है जिसे कब से खोज रहा था,
मुझे मिल ही गई, वो हंसी.

Tuesday, July 5, 2011

ज़द्दोजहद

शाखों के पत्ते आपस में कुछ चुहल करते हुए हँस पड़ते हैं. उनकी अटखेलियाँ मन को आल्हादित कर देती हैं. सिर्फ चन्द पल के लिए, और फिर सहसा मन उदास हो विचारों के सागर में गोते खाने लगता है. सब कुछ तो करना चाहा था मैंने उसके लिए, फिर क्यों उसने इतना बड़ा फैसला अकेले कर लिया बिना मुझसे सलाह लिए. यूँ तो हर छोटी से छोटी बात वो बिना मुझसे पूछे न करती थी. इस साड़ी के साथ कौन सी लिपस्टिक अच्छी लगेगी? यह चूड़ियों का सेट पहनू, या वो हरा वाला? अनगिनत सवाल और अनकहे जवाब. फिर ऐसा क्या हो गया कि आज उसने बात करना तक ठीक न समझा और फैसला ले लिया!

कहते हैं कि प्यार का अंत शादी पे होता है. हमारा तो प्यार शुरू ही शादी के बाद हुआ. चंद घंटो की मुलाकात और घर वालों द्वारा शादी का फैसला. दिन मानो पंख लगा कर उड़ने लगे. जीवन ने जैसे अनगिनत रंग घोल दिए हमारे लिए, उनका रसास्वादन करने के लिए. जब गोवा के बीच पर उसने पहली बार समुद्र को देखा तो वो भाव विहोर हो गयी थी. उसने हाथ पकड़ के कहा था कि कभी मुझसे कोई गलती हो जाये तो मुझे माफ़ कर देना. मैंने उससे कहा था कि यह जो समुद्र है, यह बहुत गहरा है, यह अपने अन्दर सब कुछ समा लेता है. अगर यह रत्नाकर है तो यह हलाहल विष धारक भी है. हमारा प्यार उस समुद्र की तरह होगा जिसकी गहराई कि कोई सीमा न होगी. हर गुजरता हुआ पल हमारे प्यार को और प्रगाड़ बनाता जा रहा था. मैं अपने आपको बहुत खुशकिस्मत मानता कि मुझे ऐसा हमसफ़र मिला.

कुछ वक़्त बीता तो वापस दुनियावी जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी कामों का सिलसिला भी शुरू हो गया. अलसाई सुबह में उठते ही वक़्त पे ऑफिस पहुचने की आपाधापी, और उसी आपाधापी के बीच उसका खाना बनाना, प्यार से पूछना के रुमाल या मोबाइल रखा के नहीं? प्यार भरी छेड़-छाड़. उफ़, प्यार में डूबा शख्स कितनी बचकानी हरकतें करता है, अब सोचता हूँ तो हंसी आती है. ऑफिस में व्यस्तता बढती जा रही थी. बढती हुई जिम्मेदारियों के साथ वक़्त भी अधिक देना पड़ता. उसने कई बार शिकायत भी की के अब आप मुझे वक़्त नहीं देते. मैंने भी हर बार उसे ये कह के मन लिया कि बस कुछ दिन और, अभी काम ज्यादा है और जल्द ही हम लोग एक मुकाम पे होंगे और फिर हम ढेर सारा वक़्त साथ में बिताएंगे. इसी आस, मान-मनुव्वल में वक़्त गुजरता गया. जैसे हर राह कि एक मंजिल होती है. जैसे हर उड़ान का एक ठहराव होता है, हमारे प्यार में भी कुछ ऐसा नज़र आने लगा था. हम दोनों ही इसे समझ कर भी दरकिनार करने लगे थे. सुबह कि अठखेलियाँ कम होती जा रही थीं. या यूँ कहे कि हम mature (?) होने लगे थे.

हर सोमवार को ऑफिस में मीटिंग होती जिसमे कंपनी के Director लेवल के लोग भाग लेते. हर सप्ताह का टार्गेट, उसे पूरा करने के लिए दिन-रात की मेहनत, सभी कर्मचारियों कि आदत बनने लगी थी. ऑफिस का काम घर पे भी आने लगा था. उसने भी जैसे इसे जीवन का हिस्सा मान कर आत्मसात कर लिया था. शुरूआती विरोध अब धीरे धीरे थम चुका था. वो कहती तो कुछ न थी पर उदासी उसकी आँखों में दिखाई पड़ने लगी थी. यकीनी तौर पे मुझे भी यह बात खलने लगी थी. पर जीवन का सफ़र तो बस मरीचिका के पीछे भागना ही है. जाने किस अनजानी मंजिल को पाने की जद्दोजहद मुझे अतिव्यस्त बनाती जा रही थी. वक़्त मानो ठहर सा गया था हमारी जिंदगी में.

और उधर, कब दिन सप्ताह बने, सप्ताह महीने, और महीने साल, कुछ पता न चला. हर मीटिंग में हम कहते के हम तरक्की कर रहे हैं. और हर तरक्की हमें एक नयी शुरुआत की प्रेरणा देती. किसी कंपनी में शुरू से जुड़े होने का एक अलग ही मतलब होता है. जैसे जैसे कंपनी तरक्की करती है, और नए लोग जुड़ते हैं, आपका उससे जुडाव और जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है. कंपनी अब सिर्फ दुसरे की कंपनी नहीं थी मेरे लिए. मुझे हर वक़्त इसे आगे बढाने का ख़याल सवार रहता. नए लोगों को आगे बढ़ाना और उनको एक नए मुकाम पे पहुचाना अब मेरी जिम्मेदारी भी थी और मेरा शौक भी. नए professionals के चेहरे में खुशी देखता तो मन प्रफुल्लित हो जाता. कभी रुक कर सोचता तो लगता कि मैंने जिस राह को चुना उसे चुनने में जरूर इश्वर का भी हाथ रहा होगा, वर्ना कितने लोग हैं जिसे हर वो चीज मिलती है, जिसकी वो तमन्ना रखते हैं. हम लगातार बाधाओं को पार कर नए मुकाम पर पहुँच रहे थे. ऑफिस में कर्मचारियों कि संख्या बढ़ती जा रही थी जो कि हमारी तरक्की की निशानी थी. पूर कंपनी को चलाने के लिए कई नए मेनेजर भी हो गए थे. सोमवार के अलावा हफ्ते में कई मीटिंग होने लगी थी. तनाव जरूर कुछ बढ़ा था लेकिन कंपनी का भी लगातार विस्तार चल रहा था.

इस साल के तीसरे तिमाही का लक्ष्य पूरा करने के लिए, हमने पूरा जोर लगा रखा था. कुछ नयी कंपनियों के हमसे जुड़ जाने से, हमारा काम कुछ बढ़ भी गया था. इस तिमाही का आखिरी महीना होने के कारण pressure बहुत ज्यादा था. पिछले दो हफ़्तों से मैं और मेरे कुछ team members दिन रात एक किये हुए लक्ष्य पाने कि चेष्टा में लगे हुए थे. कई दिन हम ऑफिस में ही सो जाते, सुबह जल्दी उठ कर काम में जुट जाते. कभी कभी लगने लगता के इस तिमाही हम न पहुच पाएंगे जहाँ हम जाना चाहते हैं. फिर एक दूसरे को motivate करते और नए जोश के साथ जुट जाते काम में. आख़िरी दो दिनों में हमने शायद ही १-२ घंटे की नींद ली हो. पर अंततः हमने लक्ष्य पूरा किया.

आज नए तिमाही का पहला दिन था और सोमवार भी. मीटिंग में Directors ने हम सब को बधाई दी और surprisingly मीटिंग के बाद छुट्टी कि घोषणा कर दी. हाड़ तोड़ मेहनत के बाद ये ऐसा मंज़र था जैसा तपती धूप में सावन कि घटाएं अपनी नन्ही बूंदों से समस्त भूमंडल को भिगो देना चाहती हों. मैं भी उस नम बारिश के एहसास के साथ घर कि तरफ रवाना हुआ. ४ दिन बाद मैं घर जा रहा था. आज कई दिन बाद में उस के साथ पूरा दिन बिताऊंगा और उसकी सारी शिकायतें दूर कर दूंगा.

घर पहुंचा तो वो नजर न आयी. आवाज दी तो कोई जवाब न मिला. कमरे में पहुंचा तो सिराहने रक्खा एक कागज़ का टुकड़ा हवा से लड़ने की नाकाम सी कोशिश कर रहा था. बरबस नजर उस पर पडी. उठा के देखा तो समझते देर न लगी की यह उसी का लिखा पत्र है. जैसे जैसे पत्र पढता जाता, मेरी नब्ज़ डूबती हुई महसूस होती. पत्र समाप्त होते होते मैं पसीने से नहा चुका था. वो घर छोड़ कर अपने मायके चली गयी थी. उसने लिखा था कि शायद मैं तुम्हारी तरक्की में बाधा बन रही हूँ. मैं तुम्हारे सपनो को पूरा होते देखना चाहती हूँ. लेकिन मैं पास हो कर भी तुम्हें अपने से दूर पाती हूँ. यह एहसास के मेरी अब तुम्हारी जिन्दगी में कोई अहमियत नहीं है, मुझे अन्दर ही अन्दर तुमसे दूर कर रहा है. में तुमसे दूर जा रही हूँ ताकि हमारी नजदीकियां कायम रहें. कम से कम उन हसीन पलों को जो हमने साथ बिताएं हैं, मैं संजो के रखना चाहती हूँ अपनी आँखों में. डरती हूँ कि कही आसुओं की अविरल धार में बह न जायं वो पल. मेरा प्यार तुम्हारे लिए अक्षुण बना रहेगा. जब तुम अपना मुकाम पा लो और मेरी जरूरत महसूस करो, तो मेरे पास आना. मैं तुम्हारा हर वक़्त इन्तेजार करूंगी.

उसे खो देने का एहसास, उसके न रहने से उपजा शून्य, सहसा मुझे तोड़ सा गया. अपनी लाचारी पे मुझे रोना आता पर आंसूं शायद सूख से गए हैं. हाथ पैरों में जैसे जान ही न हो. मैं चिल्लाना चाहता पर आवाज कंठ से न निकलती. मैं उसे बुलाने को हाथ बढ़ाना चाहता, पर हाथ उठाने से इनकार कर देते. दूर कहीं कानों में आवाज आती, "आज तो मीटिंग होगी". में उस आवाज से दूर भागना चाहता. आवाज और पास आती जाती. मैं अपने कानों में हाथ रख लेता. आवाज कि तीव्रता और बढ़ जाती. "आज मीटिंग है, जाना नहीं है" उसका मुस्कराता चेहरा सामने आता मुझे अपने एहसासों से झिंझोड़ता हुआ कहता - "देर हो जाएगी, आज सोमवार है, मीटिंग मैं नहीं जाना क्या?" में हडबडा के उठ पड़ता हूँ. वो पूछती है के क्या हुआ.

अभी अभी एक भयानक सपना देखा.

एक सुखद एहसास लिये के चलो ये एक सपना था, मैं मीटिंग के लिए तैयार होने चल पड़ता हूँ.

Wednesday, June 29, 2011

चन्द्र ग्रहण - एक लघुकथा

बचपन में जब माँ गर्मियों कि छुट्टियों में छत में साथ में लेट कर जब तारों कि कहानिया सुनाती तो मैं उनमे कहीं खो जाता. में भी कहानी का हिस्सा बन जाता. इन्ही कहानियों के द्वारा माँ ने मुझे कुछ तारों को पहचानना सिखाया. शायद तभी किसी समय खगोलीय घटनाओं से मेरा लगाव बढ़ता गया. कभी समाचार पत्र में पढता कि २०० साल बाद आज तीन ग्रह एक
सीध में आयेंगे, तो मन मचल जाता इस घटना को देखने के लिए. बार बार कोसता कि मेरे पास दूरबीन क्यों नहीं है.

आज मैं बहुत खुश था. सुबह सुबह समाचार पत्र में पढ़ा कि इस सदी का सबसे लम्बा पूर्ण चंद्रग्रहण आज रात दिखेगा. और सबसे बड़ी बात कि भारत भी उन चद देशों में है जहाँ यह दिखाई देगा. में बहुत प्रफुल्लित था कि एक और विलक्षण दृश्य को में अपनी आँखों से देखूंगा.

शाम को TV में विभिन्न चैनलों को देख रहा था, मकसद यही था कि इस घटना कि विस्त्रित जानकारी मिल जाये. कोई कहता कि शायद बादल लगे हों तो दिल बैठ सा जाता था. कहीं किसी चैनल पे वार्ता चल रही थी कि किस राशि पे क्या असर होगा इस ग्रहण का.

मैं बाहर कई बार देख कर आया कि बादल तो नहीं लगे हैं; और देख के तसल्ली होती कि अभी तो आसमान साफ है. मेरी हालत उस बच्चे कि तरह थी जिसके स्कूल जाने के समय बारिश हो जाये और "रेनी डे" होने कि पूर्ण संभावना हो. खैर...

TV देखते हुए इस ग्रहण कि जानकारी मैंने पूरे परिवार को दी. तभी किसी दैवज्ञ ने बताना शुरू किया - "धनु राशि पर यह ग्रहण भारी है, धनु राशि वाले जातक ग्रहण को न देखें". मैं चैनल बदलना चाहता था पर माँ ने रोक दिया. दैवज्ञ का कथन जारी था - "धनु राशि के जातक, ग्रहण का समय इश्वर अराधना में बिताएं." बस इतना सुनना था कि माँ ने फरमान जारी कर दिया कि तुझे ग्रहण के समय बाहर निकलने कि जरूरत नहीं है.

"अरे माँ, ये सब बस खगोलीय घटनाएँ हैं और कुछ नहीं."

"मैं कुछ नहीं सुनना चाहती, धनु के लिए, ग्रहण ठीक नहीं हैं तो नहीं है."

"पर माँ, यह घटना फिर इस जीवनकाल में देखने को न मिलेगी." मैंने अधीर होते हुए कहा.

"बेटा जीवन रहा तो और बहुत से घटनाएँ देखने को मिलेंगी." माँ के स्वर में डर था.

"मैं आज सुबह से इस पल का इन्तजार कर रहा हूँ." मैंने तर्क देने का प्रयास किया.

"तुझे मेरी कसम अगर तुने आज चन्द्र ग्रहण देखा तो."

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