Saturday, December 3, 2011

यहीं कहीं तो थी

कहीं खो गयी है, यहीं कहीं तो थी,
सुबह से ढूंढ रहा हूँ पर मिल नहीं रही,
शायद घर के किसी कोने में हो,
या काम के सिलसिले में कहीं छूट तो नहीं गयी,
कब से ढूंढ रहा हूँ पर मिल नहीं रही.

याद पड़ता है, अभी कल ही तो आयी थी,
जब बच्चों के साथ खेल रहा था,
और हाँ, जब पत्नी से अठखेलियाँ कर रहा था,
वहीँ पर तो थी,
फिर कहाँ गुम हो गयी,
सुबह से ढूँढ रहा हूँ, जाने कहाँ खो गयी.

उदासियों के बादल गहरे होते जाते हैं,
जाने क्यों लगने लगा है कि,
शायद अब न मिल पायेगी,
फिर भी एक कोशिश और करता हूँ,
उम्मीदों का साथ न छोड़ता हूँ,
कहीं तो होगी, अभी यहीं कहीं तो थी.

सुबह से शाम होने को आयी,
वो न मिली,
काम के बीच भी उसे ढूँढता रहा,
वो न मिली जिसे न मिलना था,
बुझे मन से घर आता हूँ,
मेरी दोनों बच्चियां दौड़ कर लिपट जाती है,
दिखाती हैं एक कागज़ का पन्ना,
पापा, हमने आपके लिए कार्ड बनाया है,
Welcome Home लिखा है कार्ड पर,
मेरी आँखें नम हो जाती है,
हम तीनों के चेहरे पर आ जाती है हंसी,
यही तो है जिसे कब से खोज रहा था,
मुझे मिल ही गई, वो हंसी.

4 comments:

surabhi verma said...

Amazing n remarkable.... well done sir....

Tripti shukla said...

Very nice..keep it up..sir..:)

Kirti said...

Like your writing sir....kahin kahin Gulzar ki shaili se milti hai! would like to read more of your creations.

Anonymous said...

Really nice Sir....